क्या है न्यूज चैनल लाने, लांच करने या चलाने का फंडा? क्यों धनपशु, चिडफंडिए या राजनेता ही खोलते हैं न्यूज चैनल. जब न्यूज चैनल घाटे में चल रहे हैं तो क्यों नहीं उन पर वीआईओ की तरह तालाबंदी कर दी जाती है, क्यों पत्रकारों का खून चूसते हुए भी इसे चलाया जाता है? अब अगर आंकड़ों को देखे तो यह पूरा मामला पॉवरगेम या जनहित से ज्यादा काले को सफेद करने का दिखता है. हालांकि इंडिया टुडे से बातचीत में सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने भी न्यूज चैनलों का प्रयोग धौंस जमाने के लिए माना है, पर आंकड़े इससे भी ज्यादा की चुगली करते हैं.
न्यूज चैनलों की अंधेरखाने में भटकती दुनिया के चार-पांच बड़े चैनलों को छोड़ दे तो ज्यादातर के पीछे की कहानी काले को सफेद में बदलने की ही दिखती है. आइए अब नजर डालते हैं टीवी इंडस्ट्री पर. देश में टेलीविजन इंडस्ट्री का मार्केट 30,000 करोड़ का है, जिसमें 20,000 इंस्क्रीप्शन मार्केट यानी पे चैनलों का है. इसमें ज्यादातर इंटरटेनमेंट और स्पोर्टस चैनल शामिल हैं. देश के गिने चुने न्यूज चैनल ही चैनल पे चैनल हैं. बाकी न्यूज चैनल फ्री टू एयर हैं. टीवी इंडस्ट्री में 10,000 करोड़ का सालाना विज्ञापन मार्केट है. इसमें से मात्र सत्रह प्रतिशत यानी 1700 करोड़ का मार्केट न्यूज चैनलों का है.
सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के रिकार्ड के अनुसार देश भर में 338 न्यूज चैनलों को लाइसेंस दिया गया है, जिसमें सभी भाषाओं के नेशनल और रीजनल न्यूज चैनल शामिल हैं. अपुष्ट आंकड़ों के अनुसार इसमें 170 से 180 के बीच हिंदी न्यूज चैनल हैं. सत्रह सौ करोड़ के न्यूज इंडस्ट्री विज्ञापन मार्केट को देखें तो इन टीवी न्यूज चैनलों को औसतन पांच करोड़ से कुछ ही ज्यादा सालाना आमदनी होती दिखती है, जबकि वास्तविक आंकड़ा ऐसा है कि इस विज्ञापन मार्केट पर भी ज्यादातर बड़े न्यूज चैनलों का हिस्सा है. छोटे या रीजनल चैनल की सालाना आमदनी तो शायद एक करोड़ से भी काफी कम होगी. हम न्यूज चैनलों के खेल के गोरखधंधे को समझाने के लिए आइए नजर डालते हैं, बाजार के लीडर तथा बड़े न्यूज चैनल ग्रुप टीवी टुडे पर.
टीवी टुडे ग्रुप ऐसा ग्रुप है, जो अपने कर्मचारियों को बेहतर सेलरी व सुविधाएं देने के साथ अपने बेहतर हालात के लिए जाना जाता है. पर पिछले कुछ समय में इस ग्रुप के हालात भी बदतर हुए हैं. इस ग्रुप को फर्श से अर्श तक पहुंचाने वाले सीईओ जी कृष्णन को भी इसी मार्केटिंग स्ट्रेटजी पर कमजोर होने के चलते ही जाना पड़ा. सूत्र बताते हैं कि बीते वित्तीय वर्ष में टीवी टुडे ग्रुप का टर्न ओवर 292 करोड़ का था, जिसमें मात्र बारह करोड़ रुपये का लाभ प्राप्त हुआ है. पिछले साल इस ग्रुप ने केवल डिस्ट्रीब्यूशन पर 84 करोड़ रुपये खर्च किए. सेलरी मद में कंपनी ने एक अप्रैल 10 से 31 मार्च 11 तक 87 करोड़ रुपये खर्च किए. अन्य खर्च दीगर रहे, जबकि यह चैनल पे चैनल है तथा इसका मार्केट रीच भी दूसरे चैनलों से अधिक है. इसके बावजूद इसका मार्केट पहले से कमजोर हुआ है. 2009 में इस ग्रुप ने 32 करोड़ रुपये का लाभ कमाया था वहीं 2010 में यह घटकर 18 करोड़ रह गया था.
जब आजतक जैसे चैनल के हालत इस कदर हो चुके हैं तो नए आने वाले चैनलों के बारे में आसानी से समझा जा सकता है. प्रणब राय जैसे फेस वैल्यू रखने वाले पत्रकार-मालिक के चैनल के हालात ठीक नहीं हो रहे तो नए चैनल कैसे सर्वाइव कर सकेंगे यह बड़ा सवाल है. प्रणब राय की कंपनी को अपने दो चैनल इमैजिन यूनिवर्सल ग्रुप को बेचना पड़ा, जिसे अब टर्नर ने ले रखा है. एनडीटीवी-हिंदू को थांती ग्रुप के हाथों बेचना पड़ा. एनडीटीवी शो बिज, लेमिनार तथा मेट्रो नेशन दिल्ली जैसे चैनल बंद करने पड़े. जब देश के नामी पत्रकार गिने जाने वाले प्रणब राय की कंपनी के ये हालात हैं तो आने वाले चैनल, जिनके पास न फेस वैल्यू है और नहीं मार्केट में तत्काल लाभ लेने का फंडा, क्योंकर इस फील्ड में आ रहे हैं? सूत्र बताते हैं कि मीडिया फील्ड के बड़े नामों में शामिल सहारा ग्रुप भी लगातार घाटे में चल रहा है. बीते सत्र में कंपनी ने अपने पूरे मीडिया स्ट्रक्चर पर 350 करोड़ रुपये खर्च किए परन्तु आमदनी मात्र 152 करोड़ की हुई. सूत्रों का कहना है कि चैनलों के डिस्ट्रीब्यूशन पर ही सहारा को लगभग 60 करोड़ रुपये खर्च करने पड़े.
सवाल है कि इस तरह के न्यूज चैनल मार्केट में आखिर क्यों चिटफंड से जुड़े, राजनेता या धनपशु ही आ रहे हैं, जिनके तीन पांच के दूसरे साइड बिजनेस भी हैं. पिछले दिनों अनिल अंबानी के रिलायंस ग्रुप ने भी डेढ़ दर्जन से ज्यादा चैनलों का लाइसेंस लिया, परन्तु इसमें एक भी न्यूज चैनल नहीं था. शायद रिलायंस ग्रुप को न्यूज चैनल का बिजनेस स्ट्रेटजी पता है और लाभ का खेल न देखते हुए इसने न्यूज चैनलों के लिए आवेदन नहीं किया. खासकर हिंदी बेल्ट के लिए खुलने वाले अधिकांश न्यूज चैनल चिटफंड कंपनियां या धनपुश ला रहे हैं, जिनके संबंध राजनेताओं से हैं. जीएनएन न्यूज, पी7 न्यूज, सीएनईबी, न्यूज एक्सप्रेस, खबर भारती, आजाद न्यूज, एमके न्यूज जैसी तमाम अन्य चैनल चिटफंड से जुड़ी मदर कंपनियों से ताल्लुक रखती हैं. हमार टीवी, फोकस टीवी, एचवाई टीवी, न्यूज 24, ई24, दर्शन24, इंडिया न्यूज, जनसंदेश न्यूज, यूपी न्यूज जैसी कंपनियां राजनेताओं की हैं. इनमें तो कई चैनल लगातार घाटे में चल रहे हैं. इसके बाद भी इनके मालिक इन चैनलों को घाटा सहते हुए चला रहे हैं, जबकि उनका भविष्य भी साफ नहीं दिख रहा है.
आर्यन टीवी, कशिश, महुआ टीवी जैसे रीजनल चैनल के मालिकों के भी असली धंधे दूसरे हैं. इन लोगों ने भी बस चैनल इस लिए डाल रखे हैं ताकि पॉवर ब्रोकर बन सकें, पर इन्हें अब लाभ मिलता नहीं दिख रहा तो अब चैनल में पैसा लगाना बंद कर रखा है. तमाम चैनलों में पत्रकार एवं कर्मचारी सेलरी न मिलने से परेशान हैं. इसके बावजूद न्यूज चैनल का धंधा मंदा नहीं पड़ रहा है. हर दिन किसी न किसी नए चैनल का नाम सुनने को मिल रहा है. जब इस धंधे का मार्केट लिमिट है फिर क्यों तमाम कंपनियों के मालिक न्यूज चैनल लाने में ही दिलचस्पी दिखा रहे हैं. क्या ये नादान हैं या फिर इन्हें न्यूज इंडस्ट्री के मार्केट का ज्ञान नहीं हैं. शायद इनमें से ये दोनों ही नहीं हैं. ये शायद निहायत ही चालक और मार्केट का ज्ञान रखने वाले लोग हैं.
न्यूज इंडस्ट्री से जुड़े सूत्र बताते हैं कि न्यूज चैनल जनसेवा या लाभ के लिए नहीं खोल जा रहे हैं बल्कि ये पॉवर ब्रोकरी और काले धन को सफेद में बदलने के लिए खोले जा रहे हैं. ज्यादातर कंपनी चार-पांच करोड़ का घाटा सहकर सैकड़ों करोड़ काले धन को सफेद कर रही हैं. चिटफंड या दो नम्बर से आए पैसे को चैनलों में लगाकर इसे सफेद किया जा रहा है. न्यूज चैनल होने के चलते वैसे ही सरकार तथा अधिकारियों पर दबाव रहता है, वे चैनल के मामलों में जल्दी हाथ नहीं डालना चाहते, दूसरे खटाखट एक रुपये की जगह हजार रुपये का उल्टा सीधा खर्च दिखाकर काला धन सफेद किया जा रहा है. यही कारण है कि तमाम नए तथा छोटे न्यूज चैनलों में कर्मचारियों को पे स्लिप तक नहीं दिया जाता है. अगर पांच-सात बड़े हिंदी चैनलों को छोड़ दें तो अधिकांश बस काला को सफेद बनाने का खेल कर रहे हैं.
Sabhar:- Bhadas4media.com
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