राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार को अपने प्रधानमंत्री पर सार्वजनिक रूप से हमला बोलना चाहिए या नहीं यह एक बहस का विषय है। किंतु पवार ने जो कहा उसे आज देश भी स्वीकार रहा है। एक मुखिया के नाते मनमोहन सिंह की कमजोरियों पर अगर गठबंधन के नेता सवाल उठा रहे हैं तो कांग्रेस को अपने गिरेबान में जरूर झांकना चाहिए।
गठबंधन सरकारों के प्रयोग के दौर में कांग्रेस ने मजबूरी में गठबंधन तो किए हैं किंतु वह इन रिश्तों को लेकर बहुत सहज नहीं रही है। वह आज भी अपनी उसी टेक पर कायम है कि उसे अपने दम पर सरकार बनानी है, जबकि देश की राजनीतिक स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। देश पर लंबे समय तक राज करने का अहंकार और स्वर्णिम इतिहास कांग्रेस को बार-बार उन्हीं वीथिकाओं में ले जाता है, जहां से देश की राजनीति बहुत आगे निकल आई है। फिर मनमोहन सिंह कांग्रेस के स्वाभाविक नेता नहीं हैं। वे सोनिया गांधी के द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री हैं, ऐसे में निर्णायक सवालों पर भी उनकी बहुत नहीं चलती और वे तमाम मुद्दों पर 10-जनपथ के मुखापेक्षी हैं। सही मायने में वे सरकार को नेतृत्व नहीं दे रहे हैं, बस चला रहे हैं। उनकी नेतृत्वहीनता देश और गठबंधन दोनों पर भारी पड़ रही है। देश जिस तरह के सवालों से जूझ रहा है उनमें उनकी सादगी, सज्जनता और ईमानदारी तीनों भारी पड़ रहे हैं। उनकी ईमानदारी के हाल यह हैं कि देश भ्रष्टाचार के रिकार्ड बना रहा है और अर्थशास्त्री होने का खामियाजा यह कि महंगाई अपने चरम पर है। सही मायने में इस दौर में उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं।
अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग ने गठबंधन का जो सफल प्रयोग किया, उसे अपनाना कांग्रेस की मजबूरी है। किंतु समय आने पर अपने सहयोगियों के साथ न खड़े होना भी उसकी फितरत है। इस अतिआत्मविश्वास का फल उसे बिहार जैसे राज्य में उठाना भी पड़ा जहां राहुल गांधी के व्यापक कैंपेन के बावजूद उसे बड़ी विफलता मिली। देखें तो शरद पवार, ममता बनर्जी सरीखे सहयोगी कभी कांग्रेस का हिस्सा ही रहे। किंतु कांग्रेस की अपने सहयोगियों की तरफ देखने की दृष्टि बहुत सकारात्मक नहीं है। लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती सभी तो दिल्ली की सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं, किंतु कांग्रेस का इनके साथ मैदानी रिश्ता देखिए तो हकीकत कुछ और ही नजर आएगी। कांग्रेस गठबंधन को एक राजनीतिक धर्म बनाने के बजाए व्यापार बना चुकी है। इसी का परिणाम है अमर सिंह जैसे सहयोगी उसी व्यापार का शिकार बनकर आज जेल में हैं। सपा सांसद रेवतीरमण सिंह का नंबर भी जल्दी आ सकता है। यह देखना रोचक है कि अपने सहयोगियों के प्रति कांग्रेस का रवैया बहुत अलग है। वहां रिश्तों में सहजता नहीं है।
शरद पवार के गढ़ बारामती इलाके की सीट पर राकांपा की हार साधारण नहीं है। एक तरफ जहां कांग्रेस की उदासीनता के चलते महाराष्ट्र में राकांपा हार का सामना करती है। वहीं केंद्रीय मंत्री के रूप में शरद पवार हो रहे हमलों पर कांग्रेस का रवैया देखिए। कांग्रेसी उन्हें ही महंगाई बढ़ने का जिम्मेदार ठहराने में लग जाते है। एक सरकार सामूहिक उत्तरदायित्व से चलती है। भ्रष्टाचार हुआ तो ए. राजा दोषी हैं और महंगाई बढ़े तो शरद पवार दोषी ,यह तथ्य हास्यास्पद लगते हैं। फिर खाद्य सुरक्षा बिल जैसै सवालों पर मतभेद बहुत जाहिर हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के द्वारा बनाया गयी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद मंत्रियों और कैबिनेट पर भारी है, उसके द्वारा बनाए गए कानून मंत्रियों पर थोपे जा रहे हैं। यह सारा कुछ भी सहयोगी दलों के मंत्री सहज भाव से नहीं कर रहे हैं, मंत्री पद का मोह और सरकार में बने रहने की कामना सब कुछ करवा रही है।
सीबीआई का दुरूपयोग और उसके दबावों में राजनीतिक नेताओं को दबाने का सारा खेल देश के सामने है। ऐसे में यह बहुत संभव है कि ये विवाद अभी और गहरे हों। सरकार की छवि पर संकट देखकर लोग सरकार से अलग होने या अलग राय रखने की बात करते हुए दिख सकते हैं। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री रहते हुए अक्सर ऐसा करती दिखती थीं और अपना जनधर्मी रूख बनाए रखती थीं। सहयोगी दलों की यह मजबूरी है कि वे सत्ता में रहें किंतु हालात को देखते हुए अपनी असहमति भी जताते रहें, ताकि उन्हें हर पाप में शामिल न माना जाए। शरद पवार जैसै कद के नेता का ताजा रवैया बहुत साफ बताता है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जब गठबंधन नकारात्मक चुनावी परिणाम देने लगा है, सहयोगी दल चुनावों में पस्त हो रहे हैं तो उनमें बेचैनी स्वाभाविक है। जिस बारामती में शरद पवार, कांग्रेस के बिना भी भारी पड़ते थे वहीं पर अगर वे कांग्रेस के साथ भी अपनी पार्टी को नहीं जिता पा रहे हैं, तो उनकी चिंता स्वाभाविक है। जाहिर तौर पर सबके निशाने पर चुनाव हैं और गठबंधन तो चुनाव जीतने व सरकार बनाने के लिए होते हैं। अब जबकि गठबंधन भी हार और निरंतर अपमान का सबब बन रहा है तो क्यों न बेसुरी बातें की जाएं। क्योंकि सरकार चलाना अकेली शरद पवार की गरज नहीं है, इसमें सबसे ज्यादा किसी का दांव पर है तो कांग्रेस का ही है। शरद पवार से वैसे भी आलाकमान के रिश्ते बहुत सहज नहीं रहे क्योंकि सोनिया गांधी के विदेशी मूल का सवाल उठाकर एनसीपी ने रिश्तों में एक गांठ ही डाली थी। बाद के दिनों में सत्ता साकेत की मजबूरियों ने रास्ते एक कर दिए। ऐसी स्थितियों में शायद कांग्रेस को एक बार फिर से गठबंधन धर्म को समझने की जरूरत है, किंतु अपनी ही परेशानियों से बेहाल कांग्रेस के इतना वक्त कहां है? श्रीमती सोनिया गांधी की खराब तबियत जहां कांग्रेस संगठन को चिंता में डालने वाली है वहीं कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की क्षमताएं अभी बहुज्ञात नहीं हैं।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)
Sabhar:- mediakhabar.com
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