राहुल गांधी की हैसियत बनाए रखने के लिए कांग्रेस अपना सबसे बडा तुरुप का पत्ता चलने की योजना बना रही है। भाई के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए इस बार बहन पर दांव लगया जा रहा है। सभी जानते हैं कि यूपी के इन विधान सभा चुनावों से यह तय हो जायेगा कि राहुल गांधी से दिल्ली की कुर्सी कितनी दूर है! अगर यूपी में कांग्रेस अपेक्षित नतीजे नहीं दे पायी तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी से बहुत दूर हो जायेंगे! लिहाजा राहुल की साख को बचाने के लिए रणनीति बनाई जा रही है कि प्रियंका गांधी प्रदेश भर का दौरा करके कांग्रेस को जिताने की अपील करें। इस बात से कोई इनकार नहीं करता कि राहुल के मुकाबले में प्रियंका का व्यक्तित्व कहीं ज्यादा बड़ा है और अगर प्रियंका इस तरह दौरे करेंगी तो प्रदेश भर में कांग्रेस का जनाधार बढ़ेगा।
दरअसल कांगे्रस के लिए यूपी चुनाव में जीत उसके जीने मरने का सवाल बन गई है! इन चुनावों में हार उसे सिर्फ एक राज्य की हार के रूप में नहीं मिलेगी! इस हार से उसके युवराज के सपनों का महल ढह जायेगा। जिसे कांग्रेस कभी बर्दाश्त नहीं करेगी। राहुल गांधी को भी पता है कि अगर कांग्रेस को यूपी में सौ से अधिक सीटें नहीं मिलीं तो उनकी साख को भारी बट्टा लगेगा। साथ ही वह यह भी जानते हैं कि अगर कांग्रेस सौ से अधिक सीटें जीतती है तो उसके बिना सरकार बनाना असम्भव होगा। बीस साल बाद यूपी सरकार में शामिल होने की कल्पना ही कांग्रेसियों में उल्लास पैदा कर रही है। मगर यह सब इतना आसान भी नहीं है। राहुल गांधी भले ही यूपी दौरे में दिन रात एक कर रहे हैं मगर कांग्रेसी गुटबाजी खत्म होने का नाम नहीं ले रही है। रीता बहुगुणा जोशी हों, या फिर बेनी बाबू, पीएल पुनिया हों या जगदम्बिका पाल कांग्रेस के इतने धड़े बन गये हैं और इतने नेता इकट्ठा हो गये हैं कि अब यह याद रखना भी मुश्किल हो चला है कि कौन सा नेता किसका समर्थन कर रहा है और किसका विरोध!यूपी में कांग्रेस की कमान संभाल रहे राहुल गांधी के सबसे करीबी दिग्विजय सिंह का विरोध करने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है। कई कांग्रेसी नेता मान रहे हैं कि बड़बोले दिग्विजय सिंह अपने बेतुके बयानों से पार्टी का फायदा कम नुकसान ज्यादा कर रहे हैं। ऐसे में उन्हें यूपी जैसे संवेदनशील राज्य की कमान सौंपना किसी को रास नहीं आ रहा। साथ ही उनका कहना है कि यूपी से दिग्विजय सिंह का इतना ही नाता है कि मुख्यमंत्री रहते वह बदायूं जनपद के बिल्सी क्षेत्र में तांत्रिक क्रियायें कराने जरूर आते थे। इसके अलावा जब बसपा और भाजपा में ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने की होड़ लगी हो तो ऐसे में कांग्रेस की कमान किसी क्षत्रिय को सौंपने जैसा निर्णय भी किसी की समझ में नहीं आया।
उधर कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व को भी लगातार यूपी में हो रही गुटबाजी की खबर मिल रही थी। जिस तरह से केन्द्रीय नेतृत्व द्वारा बुलाई गई बैठक में प्रमोद तिवारी और रीता बहुगुणा जोशी के बीच सड़क छाप लड़ाई हुई उसने सबके माथे पर बल ला दिया। केन्द्रीय नेतृत्व समझ गया था कि यूपी में अब हालात बेकाबू हो चुके हैं। संगठन की परेशानी इस बात को लेकर भी थी कि पदाधिकारी और केन्द्रीय मंत्री तक चुनाव की रणनीति बनाने की जगह गुटबाजी को बढ़ाने में लगे हुए हैं। इन स्थितियों में मायावती से मुकाबला करना आसान नहीं था। उधर युवराज राहुल गांधी भी जानते थे कि इस बार यूपी का विधानसभा चुनाव उनके राजनैतिक भविष्य की सारी योजना तय कर देगा। लिहाजा उन्होंने पूरे यूपी की खाक छानने का निर्णय लिया। मगर इस बीच एफडीआई और लोकपाल विधेयक नें कांग्रेस की बची खुची हवा भी निकाल दी। जो युवा एवं शहरी मतदाता राहुल की तरफ आकर्षित हो रहा था अन्ना मुहिम ने उसे ज्यों का त्यों रोक दिया। शहरी एवं मध्य वर्गीय वर्ग रातों रात कांग्रेस के खिलाफ नजर आने लगा। जातीय संतुलन भी बहुत ज्यादा कांग्रेस के पक्ष में नही थे।
इन स्थितियों को भांप कर कांग्रेस में दो बिन्दुओं पर मंथन शुरू हुआ। जिन अजित सिंह को लेकर कांग्रेस कोई फैसला नहीं ले पा रही थी उन्हीं अजित सिंह के साथ तत्काल गठबंधन करके उन्हें नागरिक उड्डयन जैसा महत्वपूर्ण विभाग सौंप दिया गया। कांग्रेस को यकीन था कि इससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट मुस्लिम गठजोड़ कांग्रेस की नैय्या पार लगा देगा। कांग्रेस चाहती भी यही है कि इस गंठजोड़ का फायदा उठाने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे चुनाव फरवरी में करवा लिये जाय तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश में अप्रैल मई में। पूर्व में कांग्रेस किसी भी दल से समझौता न करने की बात कह रही थी मगर अन्ततः वह अजित सिंह की शर्तें मानने पर विवश हो गयी।
दूसरा सबसे महत्वपूर्ण विन्दु प्रियंका गांधी को सीधे चुनाव प्रचार में उतारने का था। कांग्रेस का एक धड़ा मानता है कि प्रियंका गांधी को 2014 के लोकसभा चुनावों में ही उतारना चाहिए। इस धड़े का मानना है कि प्रियंका गंाधी कांग्रेस का तुरुप का इक्का हैं। सीधे लोकसभा चुनावों में इसे इस्तेमाल किया जाय जब राहुल गांधी खुद प्रधानमंत्री पद के दावेदार हों। मगर कांग्रेस का ही दूसरा धड़ा इससे अलग ख्याल रखता है। इसका मानना है कि अगर यूपी के विधानसभा चुनाव में राहुल फैक्टर काम नहीं किया और कांग्रेस की बुरी हालत हो गयी, वह आने वाले लोकसभा चुनावों तक सुधरने वाली नहीं है।
इस धड़े का यह भी मानना था कि अगर एक बार यह संदेश चला गया कि राहुल गांधी का जादू उतर गया है तो लाख कोशिशों पर भी यह दोबारा कायम नहीं हो सकेगा। इसलिए अगर 2014 के लोकसभा चुनावों में फतह हासिल करनी है तो इन विधान सभा चुनावों में जीत हासिल करनी ही होगी। यह लोग जीत की चाभी प्रियंका गांधी को मानते हैं। इनका मानना है कि अगर प्रियंका गांधी यूपी के अलग-अलग क्षेत्रों में बड़ी रैलियों को संबोधित कर दें तो प्रदेश में कांग्रेस का माहौल बन जायेगा।
कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी भी जानती हैं कि उनके लाडले की दिल्ली ताजपोशी तभी संभव है जब यूपी में कांग्रेस बड़ी जीत हासिल करे। लिहाजा कोई ताज्जुब नहीं है कि अगर सोनिया गांधी अपने बेटे की भविष्य की खातिर अपनी बेटी के साथ यूपी भर में चुनाव प्रचार करती नजर आयें। जीत का सेहरा यूं हीं नही बंध जाता। उसके लिए त्याग की जरूरत होती है। हो सकता है प्रियंका का यह त्याग भाई राहुल के काम आ जाए।
Sabhar :- http://weekandtimes.com/?p=4396
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