जयपुर : 2001 की गर्मी में वह उमसभरी शाम थी। आमेर महल बंद होने में एक घंटे का समय बचा था। मैं जयपुर से एक अखबार के दफ्तर से लौटकर महल में स्थित घर की ओर जा रहा था। तभी मेरी नजर महल कर्मियों से घिरे देव साहब पर गई। कौतूहलवश मैं भी उनके पास जा पहुंचा। वे बार-बार कह थे कि भाई मुझे महल देखना है, कोई गाइड मिलेगा क्या? कर्मचारी बोले, साहब अब तो कोई नहीं मिलेगा। अगर किसी को बुलाएंगे तब तक महल बंद हो जाएगा।
इस उत्तेजनापूर्ण माहौल में मैंने एक रिपोर्टर के नाते देव साहब से कुछ सवाल पूछ लिए। मसलन, शूटिंग स्पॉट्स में आमेर महल शामिल है क्या? जैसे ही यह सवाल किया तो वे बोले, यहां खास क्या है? चूंकि मेरा तो वहां घर ही था और काफी कुछ जानकारी भी थी। देव साहब बोले, यार ऐसा करो तुम कुछ देर के लिए रिपोर्टर का काम छोड़ो मेरे गाइड बन जाओ और मुझे महल दिखा दो। यह कहकर उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखा और मेरी झिझक दूर हो गई। फिर वे तेज रफ्तार से महल की ओर चल दिए।
करीब एक घंटे में मैंने उन्हें जलेब चौक, दीवाने आम, शीशमहल, गणोश पोल, बारादरी, भूल-भूलैया और सबसे आखिर में शिला देवी मंदिर का इतिहास बताया। उन्हें शीशमहल और उसके झरोखे से केसर-क्यारी का लुक सबसे ज्यादा पसंद आया। इस दौरान एक बार भी उन्होंने कंधे से हाथ नहीं हटाया। मुझे सबसे मुश्किल उनके साथ चलने में हुई। वे अपना फिल्मी हैट लगाए अपने ही अंदाज में इतनी तेज चल रहे कि मुझे उनके साथ चलने में सांस फूल रही थी। महल का कोना-कोना दिखाने के बाद मैने उनसे एक ही सवाल पूछा कि सर 78 साल की उम्र में इस अंदाज और फुर्ती का राज क्या है?
तो बोले हर फिक्र को धुएं में उड़ाते चलोगे भैया तो यह रफ्तार बनी रहेगी वरना पीछे रह जाओगे। महल देखकर गाड़ी में सवार होते हुए बोले..भैया कभी मुंबई आओ! हम भी तुम्हें घुमाएंगे। उस हसीन इत्तेफाक की याद आज भी मुझे रोमांचित करती है। नहीं भूलता देव साहब का वह मुस्कुराता चेहरा।
धर्मेंद्र झा का यह लेख भास्कर से साभार लेकर प्रकाशित किया गया है.
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