यूपी विधानसभा चुनावः भाजपा को राम तो सपा को इमाम का सहारा!
राजनीति में कौन दुश्मन कब दोस्त बन जाए और दोस्त, दुश्मन कहा नहीं जा सकता। संभवतः वह 24 या 25 सितंबर 1993 की तारीख थी और स्थान था लखनऊ का बेग़म हज़रत महल पार्क। बाबरी मस्जिद को शहीद हुए एक वर्ष भी न बीता था और उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव घोषित हो गए थे। ठीक उसी समय समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव और उस समय उनकी आंखों के प्यारे मोहम्मद आज़म खां एक ज़ोरदार रैली करके दिल्ली की ज़ामा मस्जि़द के शाही इमाम मौलाना अब्दुल्ला बुखारी को चुनौती भरे अंदाज़ में कह रहे थे कि‘इमाम साहब इमामत करें और राजनीति हमें करने दें।’ और हुआ भी ऐसा ही! उत्तर प्रदेश के मुसलमानों ने इमाम बुखारी के फतवे को न मानकर नए-नए ‘मौलाना’ बने मुलायम सिंह को ही सियासत में अपना रहनुमा माना।
इस बात को दो दशक भी न बीते हैं लेकिन इतने समय में गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। उन्हीं अब्दुल्ला बुखारी (जिन्हें मुलायम- आज़म की जोड़ी ने सियासत में उनकी हैसियत बताई थी) के पुत्र जो उस समय नायब इमाम थे और इस समय इमाम हैं, अहमद बुखारी, मुलायम सिंह के गले लगकर न केवल सपा को वोट देने की अपील कर रहे हैं बल्कि मुलायम सिंह को मुसलमानों का सच्चा हितैषी भी बता रहे हैं।
हो सकता है कि अहमद बुखारी आज सच बोल रहे हों और दो दशक पहले अपने पिता द्वारा किए गए अपराध के लिए उनमें क्षमायाचना का भाव भी हो लेकिन यह इतना सहज और सीधा मामला नहीं है।
बुखारी और मुलायम के प्रेम को समझने के कई कोण हैं और शायद यह बुखारी की कम और मुलायम की ज्यादा मजबूरी है। दरअसल प्रदेश में सपा का माई समीकरण (मुस्लिम और यादव) टूट चुका है और इसके लिए गुनाहगार कोई और नहीं स्वयं मुलायम सिंह ही हैं जिन्होंने अमर सिंह के प्रेम में वशीभूत होकर बाबरी मस्जिद के सजायाफ्ता मुजरिम कल्याण सिंह से न केवल दोस्ती की बल्कि अपने बुरे दिनों के साथी आज़म खां को भी पार्टी से धकियाकर बाहर कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि मुसलमान मुलायम से दूर हो गया और कल्याण व अमर भी उनके हुए नहीं। मजबूर होकर मुलायम को एक बार फिर आज़म खां की शरण में जाना पड़ा लेकिन उनसे संबंधों में एक बार जो दरार आई वह दरार ऊपरी तौर पर दूर तो हुई लेकिन उसमें गांठ पड़ गई। लिहाजा आज़म खां, मुलायम के लिए इस बार वह नहीं कर रहे जो वह पहले करते आए थे।
सपा से मुसलमान के छिटकने का नतीजा यह हुआ कि सूबे में कांग्रेस पनपने लगी और अगर मुसलमान इस चुनाव में कांग्रेस की तरफ चला गया तो सपा तो कहीं की भी नहीं रहेगी। क्योंकि प्रदेश में यादवों की संख्या कुल नौ प्रतिशत के लगभग है जबकि मुसलमानों की संख्या 18 फीसदी के आसपास है। सपा की समस्या यह है कि बसपा से नाराज़गी के बावजूद उसके खाते में कोई नया वोट नहीं जुड़ रहा। बसपा से जो पिछड़े अलग हो रहे हैं वे भाजपा में जा रहे हैं। मुसलमान और ब्राह्मण कांग्रेस में जाता हुआ लग रहा है। यदि ऐसा हो गया तो सपा की तो लुटिया ही डूब जाएगी!
इसलिए बुखारी को गले लगाकर मुलायम ने सबसे पहले कांग्रेस को झटका दिया है। कांगेस नेताओं के बयानों को देखकर लगता भी है कि उनका यह तीर कुछ निशाने पर भी लगा है।
इस मेल मिलाप का दूसरा आयाम भी समझा जा सकता है। क्या यह महज एक संयोग है कि जब सूबे में डूबती हुई भारतीय जनता पार्टी को अपनी नैया पार लगाने के लिए एक बार फिर राम मंदिर का निर्माण याद आया है ठीक उसके अगले ही दिन इमाम साहब को मुलायम सिंह मुसलमानों के हितैषी नज़र आने लगे हैं! क्या यह मैच भी फिक्स है? यह ध्यान देने योग्य बात है कि मुलायम सिंह सूबे की सियासत में उरूज़ पर तभी रहे हैं जब भाजपा मजबूत रही है और भाजपा के कमजोर पड़ने पर उनकी सियासत भी कमज़ोर पड़ती रही है। इसलिए अगर बुखारी के आने से पैदा होने वाले सांप्रदायिक तनाव से भाजपा को फायदा होगा तो सपा का सोचना है कि उसके रिएक्शन में मुसलमान उसे वोट करेंगे। हालांकि हो इसका उल्टा भी सकता है कि मुसलमान सपा से बिल्कुल ही दूर हो जाए। बहरहाल भाजपा का राम को याद आना और मुलायम सिंह का बुखारी को गले लगाना दोनों ही घटनाएं उत्तर प्रदेश के माहौल के ज़हरीले और सांप्रदायिक होने के खतरनाक संदेश दे रही हैं।
तीसरा और सबसे जरूरी संदेश जो मुलायम सिंह ने इस दोस्ती के जरिए देने का प्रयास किया है वह उनका अंदरूनी मसला है। पिछले लोकसभा चुनाव में आज़म खां की बगावत से सपा का बंटाधार हो गया था और सबसे बड़ा नुकसान मुलायम सिंह की छवि को हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज़म खां का उत्तर प्रदेश के मुसलमानों पर अपना एक अलग किस्म का प्रभाव है और उनकी बगावत से ही सपा को नुकसान हुआ। हालांकि बाद में गरज पड़ने पर मुलायम सिंह ने आज़म को मनाया तो और उनकी घर वापसी भी कराई लेकिन संबंधों में जो दरार आई वह भरी नहीं जा सकी। उधर मुलायम सिंह की तमन्ना बताई जाती है कि वह अपने सामने ही अपने बेटे अखिलेश के सिर पर पर एक बार सूबे का ताज देखना चाहते हैं जिसकी हड़बड़ी में पार्टी के सभी पुराने नेताओं का तिरस्कार किया जा रहा है। जब बाहुबली राजनेता डीपी यादव ने रामपुर जाकर आजम खां के सामने सपा में शामिल होने की घोषणा की तो आज़म खां को उनकी हैसियत समझाने और पुरानी दुश्मनी चुकता करने के लिए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और मुलायम के युवराज अखिलेश यादव ने डीपी का प्रवेश रोक दिया। बताया जाता है कि आज़म खां ने इसे व्यक्तिगत अपमान माना और लोगों में भी यही संदेश गया कि यह तो डीपी पर नहीं बल्कि आज़म खां पर निशाना है।
बताया जाता है कि अपने अपमान से व्यथित आज़म खां उसके बाद से ही नाराज़ हैं और उन्होंने अपनी नाराज़गी खुलेआम जगजाहिर तो नहीं की लेकिन पार्टी का घोषणापत्र जारी होने के महत्वपूर्ण अवसर पर अनुपस्थित रहकर उन्होंने अपना संदेश इशारों-इशारों में दे दिया।
अब सवाल उठता है कि बुखारी से दोस्ती का आज़म खां से नाराज़गी का क्या लेना देना? लेकिन असल बात तो यही है। आज़म खां और अहमद बुखारी में पुरानी अदावत है और दोनों ही एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते हैं। यहां तक कि जिस समय रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद चरम पर था उस समय भी आज़म खां और अहमद बुखारी के झगड़े में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी टूट के कगार पर पहुंच गई थी। बताया जाता है कि आज़म खां और अहमद बुखारी दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ निजी बातचीत में जमकर ज़हर उगला करते थे।
मुलायम ने बुखारी के तीर से जो तीन शिकार किए हैं उनमें से सबसे तेज़ मार आज़म खां के सीने पर ही की है।मुलायम सिंह ने आज़म खां को संदेश देने का प्रयास किया है कि मियां हैसियत में रहो वरना हमारे पास तुम्हारा बुखार छुड़ाने के लिए बुखारी हैं। और अगर यह संदेश नहीं है तो देखना होगा कि क्या आज़म खां सहारनपुर जि़ले में सपा प्रत्याशी और अहमद बुखारी के नज़दीकी रिश्तेदार मौहम्मद उमर के लिए प्रचार करने के लिए जाएंगे? या अहमद बुखारी, आज़म खां के लिए प्रचार करने उनके निर्वाचन क्षेत्र रामपुर जाएंगे?
इस बात को दो दशक भी न बीते हैं लेकिन इतने समय में गंगा में बहुत सा पानी बह चुका है। उन्हीं अब्दुल्ला बुखारी (जिन्हें मुलायम- आज़म की जोड़ी ने सियासत में उनकी हैसियत बताई थी) के पुत्र जो उस समय नायब इमाम थे और इस समय इमाम हैं, अहमद बुखारी, मुलायम सिंह के गले लगकर न केवल सपा को वोट देने की अपील कर रहे हैं बल्कि मुलायम सिंह को मुसलमानों का सच्चा हितैषी भी बता रहे हैं।
हो सकता है कि अहमद बुखारी आज सच बोल रहे हों और दो दशक पहले अपने पिता द्वारा किए गए अपराध के लिए उनमें क्षमायाचना का भाव भी हो लेकिन यह इतना सहज और सीधा मामला नहीं है।
बुखारी और मुलायम के प्रेम को समझने के कई कोण हैं और शायद यह बुखारी की कम और मुलायम की ज्यादा मजबूरी है। दरअसल प्रदेश में सपा का माई समीकरण (मुस्लिम और यादव) टूट चुका है और इसके लिए गुनाहगार कोई और नहीं स्वयं मुलायम सिंह ही हैं जिन्होंने अमर सिंह के प्रेम में वशीभूत होकर बाबरी मस्जिद के सजायाफ्ता मुजरिम कल्याण सिंह से न केवल दोस्ती की बल्कि अपने बुरे दिनों के साथी आज़म खां को भी पार्टी से धकियाकर बाहर कर दिया था। नतीजा यह हुआ कि मुसलमान मुलायम से दूर हो गया और कल्याण व अमर भी उनके हुए नहीं। मजबूर होकर मुलायम को एक बार फिर आज़म खां की शरण में जाना पड़ा लेकिन उनसे संबंधों में एक बार जो दरार आई वह दरार ऊपरी तौर पर दूर तो हुई लेकिन उसमें गांठ पड़ गई। लिहाजा आज़म खां, मुलायम के लिए इस बार वह नहीं कर रहे जो वह पहले करते आए थे।
सपा से मुसलमान के छिटकने का नतीजा यह हुआ कि सूबे में कांग्रेस पनपने लगी और अगर मुसलमान इस चुनाव में कांग्रेस की तरफ चला गया तो सपा तो कहीं की भी नहीं रहेगी। क्योंकि प्रदेश में यादवों की संख्या कुल नौ प्रतिशत के लगभग है जबकि मुसलमानों की संख्या 18 फीसदी के आसपास है। सपा की समस्या यह है कि बसपा से नाराज़गी के बावजूद उसके खाते में कोई नया वोट नहीं जुड़ रहा। बसपा से जो पिछड़े अलग हो रहे हैं वे भाजपा में जा रहे हैं। मुसलमान और ब्राह्मण कांग्रेस में जाता हुआ लग रहा है। यदि ऐसा हो गया तो सपा की तो लुटिया ही डूब जाएगी!
इसलिए बुखारी को गले लगाकर मुलायम ने सबसे पहले कांग्रेस को झटका दिया है। कांगेस नेताओं के बयानों को देखकर लगता भी है कि उनका यह तीर कुछ निशाने पर भी लगा है।
इस मेल मिलाप का दूसरा आयाम भी समझा जा सकता है। क्या यह महज एक संयोग है कि जब सूबे में डूबती हुई भारतीय जनता पार्टी को अपनी नैया पार लगाने के लिए एक बार फिर राम मंदिर का निर्माण याद आया है ठीक उसके अगले ही दिन इमाम साहब को मुलायम सिंह मुसलमानों के हितैषी नज़र आने लगे हैं! क्या यह मैच भी फिक्स है? यह ध्यान देने योग्य बात है कि मुलायम सिंह सूबे की सियासत में उरूज़ पर तभी रहे हैं जब भाजपा मजबूत रही है और भाजपा के कमजोर पड़ने पर उनकी सियासत भी कमज़ोर पड़ती रही है। इसलिए अगर बुखारी के आने से पैदा होने वाले सांप्रदायिक तनाव से भाजपा को फायदा होगा तो सपा का सोचना है कि उसके रिएक्शन में मुसलमान उसे वोट करेंगे। हालांकि हो इसका उल्टा भी सकता है कि मुसलमान सपा से बिल्कुल ही दूर हो जाए। बहरहाल भाजपा का राम को याद आना और मुलायम सिंह का बुखारी को गले लगाना दोनों ही घटनाएं उत्तर प्रदेश के माहौल के ज़हरीले और सांप्रदायिक होने के खतरनाक संदेश दे रही हैं।
तीसरा और सबसे जरूरी संदेश जो मुलायम सिंह ने इस दोस्ती के जरिए देने का प्रयास किया है वह उनका अंदरूनी मसला है। पिछले लोकसभा चुनाव में आज़म खां की बगावत से सपा का बंटाधार हो गया था और सबसे बड़ा नुकसान मुलायम सिंह की छवि को हुआ। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आज़म खां का उत्तर प्रदेश के मुसलमानों पर अपना एक अलग किस्म का प्रभाव है और उनकी बगावत से ही सपा को नुकसान हुआ। हालांकि बाद में गरज पड़ने पर मुलायम सिंह ने आज़म को मनाया तो और उनकी घर वापसी भी कराई लेकिन संबंधों में जो दरार आई वह भरी नहीं जा सकी। उधर मुलायम सिंह की तमन्ना बताई जाती है कि वह अपने सामने ही अपने बेटे अखिलेश के सिर पर पर एक बार सूबे का ताज देखना चाहते हैं जिसकी हड़बड़ी में पार्टी के सभी पुराने नेताओं का तिरस्कार किया जा रहा है। जब बाहुबली राजनेता डीपी यादव ने रामपुर जाकर आजम खां के सामने सपा में शामिल होने की घोषणा की तो आज़म खां को उनकी हैसियत समझाने और पुरानी दुश्मनी चुकता करने के लिए पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और मुलायम के युवराज अखिलेश यादव ने डीपी का प्रवेश रोक दिया। बताया जाता है कि आज़म खां ने इसे व्यक्तिगत अपमान माना और लोगों में भी यही संदेश गया कि यह तो डीपी पर नहीं बल्कि आज़म खां पर निशाना है।
बताया जाता है कि अपने अपमान से व्यथित आज़म खां उसके बाद से ही नाराज़ हैं और उन्होंने अपनी नाराज़गी खुलेआम जगजाहिर तो नहीं की लेकिन पार्टी का घोषणापत्र जारी होने के महत्वपूर्ण अवसर पर अनुपस्थित रहकर उन्होंने अपना संदेश इशारों-इशारों में दे दिया।
अब सवाल उठता है कि बुखारी से दोस्ती का आज़म खां से नाराज़गी का क्या लेना देना? लेकिन असल बात तो यही है। आज़म खां और अहमद बुखारी में पुरानी अदावत है और दोनों ही एक दूसरे को फूटी आंखों नहीं सुहाते हैं। यहां तक कि जिस समय रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद विवाद चरम पर था उस समय भी आज़म खां और अहमद बुखारी के झगड़े में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी टूट के कगार पर पहुंच गई थी। बताया जाता है कि आज़म खां और अहमद बुखारी दोनों ही एक दूसरे के खिलाफ निजी बातचीत में जमकर ज़हर उगला करते थे।
मुलायम ने बुखारी के तीर से जो तीन शिकार किए हैं उनमें से सबसे तेज़ मार आज़म खां के सीने पर ही की है।मुलायम सिंह ने आज़म खां को संदेश देने का प्रयास किया है कि मियां हैसियत में रहो वरना हमारे पास तुम्हारा बुखार छुड़ाने के लिए बुखारी हैं। और अगर यह संदेश नहीं है तो देखना होगा कि क्या आज़म खां सहारनपुर जि़ले में सपा प्रत्याशी और अहमद बुखारी के नज़दीकी रिश्तेदार मौहम्मद उमर के लिए प्रचार करने के लिए जाएंगे? या अहमद बुखारी, आज़म खां के लिए प्रचार करने उनके निर्वाचन क्षेत्र रामपुर जाएंगे?
अमलेन्दु उपाध्याय :लेखक राजनीतिक समीक्षक और हस्तक्षेप.कॉम के संपादक हैं.
sabhar-rajnama.com
bahot hi achha aur sachha....
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