पत्नी लिखेंगी अपने पुलिस अधिकारी पति के संघर्ष की कहानी : पूरी कहानी किताब के रूप में दो महीने में हाजिर होगी : नाम होगा- "अमिताभ ठाकुर स्टडी लीव केस" : बात बहुत छोटी सी थी. और आज भी उतनी बड़ी नहीं. मसला मात्र छुट्टी का था. लेकिन कहते हैं ना कि बात निकले तो बहुत दूर तलक जायेगी. इसी तरह यह बात भी जब शुरू हुई तो बस बढती ही चली गयी. और अब तो इस मामले में छह-छह केस हो चुके हैं.
इनमें दो हाई कोर्ट में और चार सेंट्रल ऐडमिनिस्ट्रटिव ट्रिब्यूनल (कैट) में हैं. इनमे दो मामले अवमानना के भी शामिल हैं. लेकिन अभी यह कहानी चल ही रही है और ना जाने कब तक चलेगी. दो साल की छुट्टी में डेढ़ साल निकल गए बाकी भी निकल जाएगा. लेकिन अब मामला छुट्टी का नहीं रह गया है, मामका न्याय का और अधिकारों का हो गया है. और इस रूप में मैं इसे अब हार-जीत के ऊपर एक सिद्धांत की लड़ाई के रूप में देखती हूँ. ये बात जुडी है मेरे पति अमिताभ ठाकुर से, जो 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं और उत्तर प्रदेश काडर के हैं, वर्तमान में आईआईएम लखनऊ में अध्ययनरत हैं. ये कहानी तो तभी शुरू हो गयी थी जब उन्होंने अक्टूबर 2007 में पुलिस अधीक्षक (बलिया) की तैनाती के दौरान आईआईएम का कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (कैट) दिया था.
इसके बाद उनका चयन अप्रैल 2008 में आईआईएम में फेलो प्रोग्राम इन मैनेजमेंट में हो गया. 30 अप्रैल 2008 को आईआईएम लखनऊ में होने वाले इस कोर्स करने के लिए उन्होंने स्टडी लीव के लिए आवेदन किया था. अब अक्टूबर 2010 है. पर कई सारे कोर्ट केस और कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावजूद अभी तक उन्हें अध्ययन अवकाश नहीं मिल सका है. यह हमारी ब्यूरोक्रेसी के दो पहलुओं को ख़ास कर के दिखाता है-
1. एक तो यह कि यहाँ हर नियम आदमी देख कर बनाया जाता है।
2. प्रशासन के बड़े अधिकारी भी अपनी खुद की दुर्भावनाओं और द्वेषों से ऊपर नहीं उठ पाते हैं।
मैं इस पूरी प्रक्रिया की शुरू से ही बहुत नजदीक की गवाह रही हूँ और चाहती हूँ कि अब ये सारी बातें जनता के सामने आ जाए ताकि इस मामले के कई छुए-अनछुए पहलु जमाने और समाज के सामने आ सके. मैं इस भागम-भाग और परेशानी का बहुत नजदीकी हिस्सा रही हूँ. कई-कई बार कोर्ट और ट्रिब्यूनल में मैं साथ गयी, यहाँ तक कि कई बार वकीलों तक ने इन्हें कह दिया कि इनको यहाँ मत आने दिया कीजिये पर मैं अपनी मर्जी से जाती थी क्योंकि मुझे लगता था कि इससे इनको बल मिलेगा. कोर्ट के कागज़ बनाने और उनको सही ढंग से प्रस्तुत करने में भी मेरी भूमिका रहती और देखते ही देखते मुझे ऐसा लगने लगा था कि अब मैं भी इनके मुकदमे के बारे में कमोबेश उतना ही जानती हूँ जितना ये.
इन सारी बातों के मद्देनज़र मैंने यह निर्णय किया कि मैं इस पूरी प्रक्रिया और स्टडी लीव केस पर एक पुस्तक लिखूं. पुस्तक का नाम "अमिताभ ठाकुर स्टडी लीव केस" रखा है क्योंकि यह इस प्रकरण को पूरी तरह प्रकट कर पा रहा है. पूरी कोशिश है कि यह पुस्तक अधिकतम दो महीने के अन्दर आ जाए. अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में यह पुस्तक रहेगी. अंग्रेजी में पहले क्योंकि कि अंग्रेजी पुस्तक लिखने में कुछ सहूलियत हो रही है क्योंकि ज्यादातर कोर्ट केस के कागजात अंग्रेजी में है और इनका सीधा उपयोग अंग्रेजी में हो जा रहा है.
इस पुस्तक में कई ऐसे तथ्य प्रस्तुत होंगे और कोर्ट के ऐसे कागजात पाठकों के सामने लाये जायेंगे जो अपने आप में काफी हैरतंगेज़ होंगे और शासन, प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया को कुछ सोचने को मजबूर करेंगे.इस पुस्तक का उद्देश्य ही यथासंभव अपने पाठकों को इन तमाम जानी-अनजानी दुनिया से रू-ब-रू कराना है. पुस्तक आईआरडीएस संस्था द्वारा प्रकाशित की जायेगी.
डॉ नूतन ठाकुर
सम्पादक
पीपल'स फोरम
लखनऊ
इनमें दो हाई कोर्ट में और चार सेंट्रल ऐडमिनिस्ट्रटिव ट्रिब्यूनल (कैट) में हैं. इनमे दो मामले अवमानना के भी शामिल हैं. लेकिन अभी यह कहानी चल ही रही है और ना जाने कब तक चलेगी. दो साल की छुट्टी में डेढ़ साल निकल गए बाकी भी निकल जाएगा. लेकिन अब मामला छुट्टी का नहीं रह गया है, मामका न्याय का और अधिकारों का हो गया है. और इस रूप में मैं इसे अब हार-जीत के ऊपर एक सिद्धांत की लड़ाई के रूप में देखती हूँ. ये बात जुडी है मेरे पति अमिताभ ठाकुर से, जो 1992 बैच के आईपीएस अधिकारी हैं और उत्तर प्रदेश काडर के हैं, वर्तमान में आईआईएम लखनऊ में अध्ययनरत हैं. ये कहानी तो तभी शुरू हो गयी थी जब उन्होंने अक्टूबर 2007 में पुलिस अधीक्षक (बलिया) की तैनाती के दौरान आईआईएम का कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (कैट) दिया था.
इसके बाद उनका चयन अप्रैल 2008 में आईआईएम में फेलो प्रोग्राम इन मैनेजमेंट में हो गया. 30 अप्रैल 2008 को आईआईएम लखनऊ में होने वाले इस कोर्स करने के लिए उन्होंने स्टडी लीव के लिए आवेदन किया था. अब अक्टूबर 2010 है. पर कई सारे कोर्ट केस और कोर्ट के स्पष्ट आदेश के बावजूद अभी तक उन्हें अध्ययन अवकाश नहीं मिल सका है. यह हमारी ब्यूरोक्रेसी के दो पहलुओं को ख़ास कर के दिखाता है-
1. एक तो यह कि यहाँ हर नियम आदमी देख कर बनाया जाता है।
2. प्रशासन के बड़े अधिकारी भी अपनी खुद की दुर्भावनाओं और द्वेषों से ऊपर नहीं उठ पाते हैं।
मैं इस पूरी प्रक्रिया की शुरू से ही बहुत नजदीक की गवाह रही हूँ और चाहती हूँ कि अब ये सारी बातें जनता के सामने आ जाए ताकि इस मामले के कई छुए-अनछुए पहलु जमाने और समाज के सामने आ सके. मैं इस भागम-भाग और परेशानी का बहुत नजदीकी हिस्सा रही हूँ. कई-कई बार कोर्ट और ट्रिब्यूनल में मैं साथ गयी, यहाँ तक कि कई बार वकीलों तक ने इन्हें कह दिया कि इनको यहाँ मत आने दिया कीजिये पर मैं अपनी मर्जी से जाती थी क्योंकि मुझे लगता था कि इससे इनको बल मिलेगा. कोर्ट के कागज़ बनाने और उनको सही ढंग से प्रस्तुत करने में भी मेरी भूमिका रहती और देखते ही देखते मुझे ऐसा लगने लगा था कि अब मैं भी इनके मुकदमे के बारे में कमोबेश उतना ही जानती हूँ जितना ये.
इन सारी बातों के मद्देनज़र मैंने यह निर्णय किया कि मैं इस पूरी प्रक्रिया और स्टडी लीव केस पर एक पुस्तक लिखूं. पुस्तक का नाम "अमिताभ ठाकुर स्टडी लीव केस" रखा है क्योंकि यह इस प्रकरण को पूरी तरह प्रकट कर पा रहा है. पूरी कोशिश है कि यह पुस्तक अधिकतम दो महीने के अन्दर आ जाए. अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में यह पुस्तक रहेगी. अंग्रेजी में पहले क्योंकि कि अंग्रेजी पुस्तक लिखने में कुछ सहूलियत हो रही है क्योंकि ज्यादातर कोर्ट केस के कागजात अंग्रेजी में है और इनका सीधा उपयोग अंग्रेजी में हो जा रहा है.
इस पुस्तक में कई ऐसे तथ्य प्रस्तुत होंगे और कोर्ट के ऐसे कागजात पाठकों के सामने लाये जायेंगे जो अपने आप में काफी हैरतंगेज़ होंगे और शासन, प्रशासन और न्यायिक प्रक्रिया को कुछ सोचने को मजबूर करेंगे.इस पुस्तक का उद्देश्य ही यथासंभव अपने पाठकों को इन तमाम जानी-अनजानी दुनिया से रू-ब-रू कराना है. पुस्तक आईआरडीएस संस्था द्वारा प्रकाशित की जायेगी.
डॉ नूतन ठाकुर
सम्पादक
पीपल'स फोरम
लखनऊ
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