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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

चुटकुलेबाजी से फिल्म नहीं चलती

विपुल शाह की फिल्म एक्शन रीप्ले को दर्शकों ने नकार दिया है। एक दिन बाद लगने वाली गोलमाल थ्री का भी स्वागत उतने उत्साह से नहीं हुआ है, जैसी कि अपेक्षा की जा रही थी। जो शुरूआती गहमागहमी हमें देखने में भी आयी वो किसी सुपरहिट फिल्म का स्वागत जैसी नहीं है। दोनों ही फिल्मों के प्रति प्रबुद्ध समीक्षकों का रुख देखकर लगता है कि दीपावली, दो काबिल माने जाने वाले निर्देशकों के लिए आतिशबाजी उड़ाने का सबब बनकर आयी है। निर्देशक का भी विफल फिल्म से बड़ा नुकसान होता है, मगर वह कुछ ही समय में अपनी धूल झाडक़र खड़ा हो जाता है और अगले काम की तलाश करने लग जाता है। उसे अगला काम मिल भी जाता है। चोट लम्बे समय वो सहलाता रह जाता है जो पैसे लगाता है या पैसे लगाने की भागीदारी में चार लोगों को जोडक़र सपने देखता है। राष्ट्रीय स्तर पर एक्शन रीप्ले की समीक्षा करते वक्त उसे एक सितारा दिया जाना, वास्तव में एक बुरी फिल्म को रेखांकित करने की तरह है। ऐसा किसी एकाध समीक्षक ने नहीं किया बल्कि कई लोगों ने किया है। इससे साबित होता है कि अच्छी फिल्मों की श्रेणी में दोनों ही फिल्में नहीं आ पायीं। विपुल शाह ने वक्त-वक्त पर आँखें, दीवार, वक्त जैसी फिल्में बनायीं हैं। अक्षय कुमार उनके प्रिय अभिनेता हैं मगर इस बार कुछ ज्यादा ही एक्सपेरिमेंट हो गया। एक्शन रीप्ले और गोलमाल थ्री को देखकर यही लगता है कि कॉमेडी फिल्में बनाने वाले निर्देशक, स्क्रिप्ट के नाम पर अन्तहीन चुटकुलेबाजी को ही आधार बनाकर काम करते हैं। अब केवल चुटकुलेबाजी पर तो फिल्म चलने से रही। हालाँकि अब यह चुटकुलेबाजी बहुत जगहों पर हो रही है। मंचों पर हास्य कवि भी यही कर रहे हैं। अपने चुटकुले भी सुना रहे हैं और दूसरों के भी अपने बताकर। मिमिक्री के तमाम शो जो टेलीविजन के चैनलों पर दिखायी देते हैं वो तो चुटकुलेबाजी पर ही टिके हुए हैं। एक माहौल बना दिया गया है जिसके साथ लोग हँसने का काम कर रहे हैं। मिमिक्री शो का हँसना, निहायत ही नकली और अशिष्ट किस्म का होता है, देश के दर्शक उसके भी साथ हैं और मुफ्त में लुत्फ लेने में लगे हैं। मनोरंजन का मामला जिस तरह से मंच से लेकर टेलीविजन तक और टेलीविजन से लेकर सिनेमा तक बड़े मामूली ढंग से लिया जाने लगा है उसी का परिणाम फूहड़ और घटिया हास्य फिल्मों का खरपतवार की तरह आना है। खत्म होते साल में अपने ही कारणों से दुर्दशा को प्राप्त होने वाली फिल्में इस रस्ते से भी आयी हैं और फ्लॉप हो गयी हैं। जल्दी ही ये फिल्में सिनेमाघर से उतरकर चैनलों की शोभा बनेंगी और भुला दी जाएँगी। सिनेमा तब तक अच्छा नहीं हो सकेगा, जब तक ऐसी फिल्मों का स्थान ऐसी ही दूसरी फिल्में लेती रहेंगी।

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