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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

साप्ताहिक अखबार तो सिर्फ ब्लैकमेलिंग का हथियार होते हैं!


सफर का एक साल और : टुकड़ा-टुकड़ा करके जिंदगी पता नहीं कब और कहां किस रूप में जुड़ जाती है और देखते देखते एक कारवां बनता जाता है। अचानक पीछे मुड़कर देखो तो लगता है अरे इतना लंबा सफर तय हो गया और पता ही नहीं चला। सफर कितना ही मुश्किल भरा हो मगर मन में उमंग हो और साथी मन पसंद हों तो जिन्दगी के लम्बे लम्बे फासले पलों में बदल जाते हैं। वीकएंड टाइम्स के सात साल पूरे होने पर कुछ ऐसा ही महसूस हो रहा है मुझे। आप सबके साथ ने अखबार को उन बुलंदियों पर पहुंचा दिया जहां तक पहुंचने की मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। अखबार का आठवां साल शुरू हो चुका है और हर बार की तरह मुझे लगता है कि यह साल पिछले सालों से और बेहतर गुजरेगा।
29 जनवरी 2005 का वर्ष आज भी मेरी पलकों के सामने वैसे ही रहता है जैसे मानो ये कल की ही बात हो। प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की ग्लैमरस जिंदगी छोड़कर जब लखनऊ से वीकएंड टाइम्स निकालने का फैसला किया था तो मेरे बहुत नजदीकी लोग भी मुझसे नाराज थे। उनकी नजरों में साप्ताहिक अखबार सिर्फ ब्लैकमेलिंग का हथियार थे और ऐसा करने वाले पत्रकार ब्लैकमेलर। मेरा उन्हें कुछ भी समझाना तर्कहीन बात थी। इन लोगों का कहना था कि मैंने नासमझी में अपना कैरियर तबाह करने का निर्णय ले लिया है। मुझे भी लगता था कि इन लोगों को समझाने और उनसे बहस करने से अच्छा है कि मैं अपने काम से सिद्घ करूं कि मेरा यह फैसला सही था।
हालांकि यह सब इतना आसान भी नहीं था। सूबे में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। अमर सिंह का प्रभाव पूरे मीडिया जगत में जगजाहिर था और बड़े-बड़े अखबार सरकार से सीधा मोर्चा खोलने की जगह अपने कारोबार को विस्तार देने में ही भलाई समझ रहे थे। उस दौर में सरकार के खिलाफ अखबार निकालने की कल्पना ही बेमानी लग रही थी। मगर यह जोखिम उठाने का फैसला किया और अखबार के दूसरे अंक में ही जब हमने हेडिंग लगाई ‘‘हत्या करवानी हो या लूट, अपहरण करवाना हो या बलात्कार हाजिर हैं हमारे नेताजी’’। इस हेंडिग और खबर में छपे मंत्रियों और नेताओं के कच्चे-चिट्ठे ने सबको बता दिया कि वीकएंड टाइम्स क्यों निकल रहा है। हमने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ। 24 घंटे बीतते-बीतते हमको धमकी मिली कि अखबार ऐसे नहीं निकाला जा सकता। बस हम हंसे और कहा वीकएंड टाइम्स अगर निकलेगा तो सिर्फ ऐसे ही निकलेगा।
सरकार बदली मगर हमारे तेवरों में कोई अंतर नहीं आया। जब लखनऊ में सीएमओ की हत्या हुई तो सबसे पहले हमने पहले पेज पर ही हेडिंग लगाई ‘‘नेता-अफसर-माफिया=तीन हत्या’’। नौ महीने पहले लगी यह हेंडिंग इस सप्ताह तब सही साबित हुई जब एनआरएचएम घोटाले में नेताओं, अफसरों और माफियाओं का घिनौना गंठजोड़ सीबीआई ने सबके सामने खोलकर रख दिया। हमारा मकसद किसी एक दल की आलोचना नहीं था बल्कि उद्देश्य सरकार को बताना था कि चीजें गलत हो रही हैं और सरकार किसी भी प्रलोभन से मीडिया के सभी संस्थानों को दबा नहीं सकती।
एक मीडिया प्रतिष्ठान के स्वामी होने के नाते मुझे इसके नुकसान भी उठाने पड़े। पिछली सरकार ने हमें लगभग 20 हजार रुपये का विज्ञापन दिया था जबकि इस सरकार ने लगभग 30 हजार रुपये का। बावजूद इसके कि केवल कागजों में छपने वाले अखबारों को सूचना विभाग प्रतिवर्ष 20 से 30 लाख रुपये के विज्ञापन यूं ही दे देता है। सरकार की चरण वंदना करने वाले समूहों को विज्ञापन की यह रकम करोड़ों में बैठ जाती है। हमको इसका गिला भी नहीं था। हमको पता था कि हमने जो राह चुनी है उस पर चलने का यही परिणाम होता है। मगर हमें संतोष था कि सरकार अपनी पूरी मनमानी करके भी हमें अपने प्रयोग में तनिक भी नही डिगा पा रही थी।
अखबार लगातार लोकप्रिय हो रहा था। उत्तराखंड तथा दिल्ली में अखबार की प्रसार संख्या लगातार बढ़ रही थी और मेरे पास आने वाले फोन की संख्या में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ोत्तरी हो रही थी। जब भी हम सत्ता या विपक्ष का कोई बड़ा मामला उठाते या किसी बड़े अफसर के घोटालों की गाथा छापते तो हमें ढेरों मेल और एसएमएस आते। यह हमारे बैंक एकांउट में बढ़ते पैसों से कहीं ज्यादा मूल्यवान थे। यही हमारी असली धरोहर थी। अखबार की इतनी प्रसिद्धि देखकर मेरे वह सभी साथी जो अखबार निकालने से पहले मेरी आलोचना करते थे अब मेरी हिम्मत और मेहनत की दाद देने लगे थे और स्वाभाविक रूप से मैं बेहद खुश था क्योंकि मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा सपना सच हो रहा था मेरी आंखों के सामने।
इसी बीच मेरे साथियों ने दबाव डाला कि मैं अखबार की वेबसाइट बनवाऊं और लगभग 10 महीने पहलेwww.weekandtimes.com नाम से अपनी वेबसाइट शुरू कर दी। मेरे अनुरोध पर वेबसाइट डिजाइन करने वाले महानुभाव ने साइट के नीचे काउंटर लगाया ताकि पता चले कि कितने लोगों ने हमारी साइट पर विजिट किया है साथ ही यह भी सर्च करवाया कि हमारी साइट कहां कहां देखी जा रही है। इसके नतीजे इतने अप्रत्याशित और उत्साहवर्धक थे कि हम और हमारे सहयोगी भौंचक्के रह गये। इस कालम को लिखते समय दुनिया के 32 देशों और भारत के 85 शहरों के साथ हमारी साइट पर विजिट करने वालों की संख्या एक लाख साठ हजार हो चुकी है। लखनऊ शहर में रेलवे स्टेशन, बस स्टैण्ड पर ही प्रतिदिन हमारे एक हजार से अधिक अखबार लोग खरीदने लगे हैं। स्वाभाविक है कि इन परिस्थितियों में हमारी जिम्मेदारी और बढ़ गयी है। हमारे ऊपर अब यह दायित्व और ज्यादा मजबूती के साथ आ गया है कि हम उन सब खबरों को आप तक पहुंचायें जो किसी मजबूरी या लालच के तहत आप तक नहीं पहुंच पा रही हैं। हम पूरी कोशिश करेंगे कि आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरें और आपको उन खबरों से अवश्य अवगत कराये जिन्हें जानना आपका हक है।
स्वाभाविक है कि कोई भी मीडिया संस्थान तभी चलता है जब लोग उस पर भरोसा करते हैं। मैं आपके सामने पूरी ईमानदारी के साथ कह सकता हूं कि इन सात सालों में मैने किसी भी लालच या किसी भी दबाव में कोई भी खबर छपने से नहीं रोकी। साथ ही किसी भी लालच या किसी भी दबाव में मैने किसी के कहने पर कोई खबर नहीं छापी। मेरा और मेरी टीम का यह आत्मबल ही वीकएंड टाइम्स को लगातार बुलंदियों पर पहुंचा रहा है। अखबार के आठवें साल में प्रवेश पर भी मैं यही कहना चाहूंगा कि चाहे कोई भी परिस्थितियां हों वीकएंड टाइम्स इन्हीं तेवरों और खबर की इसी धार के साथ आप तक पहुंचेगा, बस आप अपना प्यार यूं ही बनाये रखिएगा।
लेखक‍ संजय शर्मा वीकएंड टाइम्‍स के संपादक तथा वरिष्‍ठ पत्रकार हैं. उनका यह लेख अखबार में प्रकाशित हो चुका है, वहीं से साभार लिया गया है.

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