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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

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न्यूज चैनलों का होता जा रहा है पतन


न्यूज चैनलों का होता जा रहा है पतन


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गोविंद सिंह, वरिष्ठ पत्रकार
मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी हैं। हैं तो वह बिजनेस मैनेजमेंट के प्रोफेसर, लेकिन हिंदी, उर्दू, अंग्रेजी व संस्कृत के अच्छे जानकार हैं। वह बोले, आप पत्रकारिता में दखल रखते हैं, कृपया यह बताइए कि न्यूज चैनलों का इस कदर पतन क्यों हो गया है? शाम को जब समाचार देखने को मन होता है, एक भी चैनल पर खबर नहीं चल रही होती। जो चैनल सबसे उत्तम होने का दावा करता है, उसमें विज्ञापन ही विज्ञापन होते हैं। खबरों को वह फिलर की तरह दिखाता है। जो चैनल खुद को बौद्धिक बताता है, वह शाम को एक के बाद दूसरी अनर्गल परिचर्चाओं में उलझाए रखता है। एक चैनल मामूली खबर को भी ऐसे दिखाता है, जैसे कि कोई तूफान आ गया हो। मजबूर होकर मैं अपने इलाकाई चैनल पर आता हूं, लेकिन वहां हिंदी और उर्दू इतनी खराब होती है कि उबकाई आने लगती है।
 
मुझे लगा कि अनेक मौकों पर मैं भी यही महसूस करता हूं। किसी संभ्रांत व्यक्ति से चर्चा कीजिए, तो वह भी यही कहता है। खुद टीवी चैनलों में काम करने वाले साथी इससे संतुष्ट नजर नहीं आते। हर कोई टीआरपी का रोना रोता है। वे हमेशा उस फॉर्मूले की तलाश में रहते हैं, जो उन्हें टीआरपी दिला सके। वे टीआरपी का कोई अपना फॉर्मूला आजमाने का साहस भी नहीं कर पाते। संयोग से कोई नया आइडिया किसी के दिमाग में कौंध गया, तो उसे अंजाम देने में डर लगता है। यदि फेल हो गया तो? ऐसे में सबसे ज्यादा नुकसान तो खबर का ही होता है, जो दिखाए जाने की पात्रता रखते हुए भी नहीं दिखाई जाती।
 
दूसरा नुकसान दर्शक का होता है, जो महंगा टीवी खरीदता है, हर महीने दो-ढाई सौ रुपये केबल वाले या डीटीएच वाले को देता है, इस आशा में कि उसे खबर देखने को मिलेगी और वह अपनी और अपने बच्चों की जागरूकता बढ़ाएगा। लेकिन रोज कोई न कोई ऐसी हरकत हमारे चैनल वाले कर देते हैं कि मन मसोसकर रह जाना पड़ता है। अब भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के मंच टूटने की घटना को ही लीजिए, एक ही दृश्य को टीवी चैनल दसियों बार दिखाते हैं। एक बच्चों ने अपनी अध्यापिका को चाकू मारा। एंकर महोदय ऐसे बोल रहे थे, जैसे आरोपी बच्चों ने कोई बहादुरी का काम कर दिया हो। उनके शब्द थे, बच्चों ने टीचर को मौत के घाट उतार दिया। क्या आप खबर की ऐसी प्रस्तुति को देखना चाहेंगे?
 
दुख इस बात का है कि चैनल वाले सोचते नहीं। वे हमेशा फॉर्मूलों की तलाश में रहते हैं। किसी एक चैनल का एक फॉर्मूला हिट हो गया, तो सभी उसी दिशा में दौड़ पड़ते हैं। एक ने चूहे-बिल्ली दिखाई, तो सब वही तलाशेंगे। एक ने संक्षिप्त खबरें दिखाई, तो सब उसी और दौडेंगे। एक ने अपराध कथाएं दिखाई, तो सभी अपराध ही तलाशते हैं, वह भी पूरे नाटक-नौटंकी के साथ। टीवी चैनलों पर समाचार और गल्प का अंतर खत्म होता जा रहा है।
 
हिंदुस्तान से साभार

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