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Nandita Mahtani hosts a birthday party for Tusshar Kapoor

http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

कमबख्त खबर आई और मुझे फोर्स लीव पर ले गई

वैसे तो खबर लिखना एक रिपोर्टर का काम होता है और उसे काटना डेस्क पर काम करने वाले सब एडिटर का। रिपोर्टर की खबर के बिगड़े प्रारूप पर सुबह की मीटिंग में डेस्क वालों को ही खरी-खरी सुननी पड़ती है। हम शाम को ऑफिस पहुंचते हैं तो हमें पेज पोजिशन का शिड््यूल थमा दिया जाता है। इस पेज पोजिशन में कई विज्ञापन लिखे होते हैं जो कि कंप्यूटर ऑन करके पेज पर सैट करने होते हैं। पूरा काम रिपोर्टर और डेस्क के करने के बाद कहीं जाकर हमारा नंबर आता है। हम बेचारे शाम पांच बजे से लेकर सात या आठ बजे तक खाली घूमते रहते हैं। इसके बाद जब काम वहां से पूरा होना शुरू होता है तो हम पर दबाव बनाया जाता है। दबाव भी ऐसा कि कई बार तो कुर्सी छोडक़र भाग जाने को मन चाहे। ऐसी ही घटना हुई एक दिन..
मैं शाम को रूटीन वे पर ऑफिस पहुंचा। ऑफिस में रिपोर्टर अपना काम करने में बिजी थे और डेस्क के दूसरे लोग अभी आने बाकी थे। मैं जाकर इंतजार करने के लिए बैठ गया। काम तो आठ बजे से पहले मिलने वाला नहीं था तो मैंने टीवी ऑन किया और एक न्यूज चैनल देखने लगा। वैसे भी जब भी टीवी देखता हंू तो न्यूज चैनलों पर चलने वाली ड्रामारूपी खबरें जरूर देखता हंू। इस बीच आठ बजे का टाइम भी हो ही गया। खबरें पेज पर लगाने के लिए हमारे पास आनी शुरू हुई तो चिंता और प्रेशर बढऩे लगा। खैर आदत के मुताबिक पेज बनने शुरू हो गए और साढ़े बारह बजे तक हमने सभी पेज तैयार कर दिए। पेज तैयार होने के बाद अब पेज छूटने की बारी थी कि इस बीच एक सेक्स रैकेट की खुलासा हो गया। फिर क्या था तीन पेज तोडऩे पड़े। पेज तोडऩा तो सर्द रात में दिल तोडऩे जैसा होता है। खैर पेज तोड़ दिया तो पता चला कि क्राइम वाले रिपोर्टर की पत्नी बीमार हो जाने की वजह से वह खबर कवर करने नहीं जा पा रहा है। डेस्क पर इत्तेफाक से महज दो लोग, जिनके पास कुर्सी से उठने तक की फुरसत नहीं। रात के एक बजे की खबर और खबर को कवर करने वाले रिपोर्टर या डेस्क पर्सन की मनाही। घर पहुंच चुके इंचार्ज साहब को फोन पर खबर के साथ ही इस समस्या से भी अवगत कराया गया। कोई चारा न देख ऑफिस के कैमरा सहित मुझे वहां भेजने का ऑर्डर दिया गया। मैं अपनी धुन में मस्त खबरों को रिप्लेस कर पेज खाली करने के काम में लगा था जब एक ऑफिस के साथी ने मुझे यह ऑर्डर सुना दिया। यह आदेश सुनकर मैं अवाक रह गया। रात के एक बजे , देहरादून की सूनी सडक़ों पर, मैं बेचारा एक पेजीनेटर कैसे खबर कवर करने जाऊंगा। मैं तो इतना जानता हंू कि पेज से विज्ञापन हटाकर या लगाकर खबर को छोटी या बड़ी करनी होती है। इसके लिए एक क्रॉसर हटा दिया या फिर दो लाइन बढ़ा दी। यह सुनकर मेरे आश्चर्य और चिंता का ठिकाना न रहा।
अब बॉस का ऑर्डर तो आर्मी के कमांडर सरीखा होता है। नहीं मानने पर फोर्स लीव पर जाने की टेंशन तो दिमाग का भुरता बना दे। मैंने ऑफिस का कैमरा उठाया और बड़बड़ाता हुआ अपनी बाइक पर आकर बैठ गया। बाइक स्टार्ट की और सेक्स रैकेट को देखने और उनसे बात करने के लिए मैं कोतवाली की ओर रवाना हुआ। कोतवाली ऑफिस से तकरीबन पांच किलोमीटर की दूरी पर थी। ठंड में सिकुड़ता हुआ मैं कोतवाली पहुंचा और वहां से पूरी जानकारी ली। उतनी, जितनी की मेरे दिमाग में आ सकती थी। चंूकि पुलिसवाले मुझे जानते नहीं थे तो ज्यादा खुलकर बात नहीं की, बस अखबार का नाम बताने पर उन्होंने अनिवार्य जानकारी दी जो कि एक खबर के लिहाज से जरूरी होती हैं। आखिर पत्रकारों के साथ रोज का वास्ता होने पर यह पुलिसवाले भी इतना तो जान ही जाते हैं कि कितनी जानकारी खबर बना देती है।
इस बीच अखबार छूटने का दबाव वाला फोन ऑफिस से लगातार आता रहा। मैंने अपनी तरफ से पूरी जल्दी की लेकिन अब जो होने जा रहा था, उसे मैं कभी नहीं भूल सकता। मैं मन में खबर का पूरा खाका लिए ऑफिस की ओर बढ़ चला। ऑफिस से एक किलोमीटर पहले गाड़ी का टायर पंक्चर हो गया। कमबख्त को यह भी अभी होना था। मेरा गुस्सा चरम पर था। आखिर एक रिपोर्टर की मां या पत्नी बीमार हो जाएगी तो क्या दूसरे रिपोर्टर नहीं रहे जो मुझे इस काम में लगा दिया। अगर दिन होता तो भी चल जाता लेकिन रात के इस सन्नाटे में तो हालत पतली हो गई। मैं पैदल ही ऑफिस तक पहुंचा। अंदर घुसा तो सबने अपने लेवल की बातें और गुस्सा अपनी नाराजगी की चाशनी के साथ मुझे पिला दी। बॉस का फोन आया कि उसे दो दिन के लिए फोर्स लीव पर भेज दिया जाए। दरअसल इस सब गुस्से की वजह यह थी कि मैं जब तक ऑफिस पहुंचा, तब तक अखबार छूट चुका था। जब मुझे ऑफिस पहुंचने के बाद यह जानकारी मिली तो मेरी तो काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो गई। ऊपर से दो दिन की फोर्स लीव का ऑर्डर। मन किया कि सारे कंप्यूटर उठाकर पटक दंू। सबको बताऊं कि मैं कितनी मुश्किलों के बाद खबर लेकर ऑफिस पहुंचा था लेकिन मैं बेबस था। मन मसोस कर खुद को और रिपोर्टर को कोसता हुआ घर चला गया। अगली सुबह हर अखबार के फ्रंट पेज पर सेक्स रैकेट का खुलासा मय फोटो छपा हुआ था, हमारे अखबार में महज एक सिंगल कॉलम खबर एक डेस्क वाले साथी की मेहरबानी की वजह से छप गई थी, जिसने मेरी इज्जत बचाने का काम किया। साथी ने मेरा हौंसला बढ़ाते हुए बॉस को बताया कि गाड़ी पंक्चर होने की वजह से मैंने उसे खबर फोन पर नोट करा दी थी जो कि उसने अपनी तरफ से लिखकर पेज पर लगा दी। मैं दो दिन की फोर्स लीव पर जा चुका था तो वापस आने का मतलब नहीं था। इन दो दिनों में मन में न जाने कितने गलत ख्याल आए लेकिन अपने परिवार की चिंता ने कदम रोक दिए।
हमारी पत्रकारिता में आज भी कितना शोषण होता है कि एक पेजिनेटर को रात के एक बजे खबर कवर करने के लिए भेज दिया जाता है। अगर वह लेट हो जाता है तो उसे फोर्स लीव पर भेज दिया जाता है, जबकि वह फोन पर जरूरी जानकारी मुहैया करा देता है। अब मुझे ऑफिस का यह कल्चर और बॉस की यह हिटलरशाही रास नहीं आती थी। मैं फोर्स लीव से वापस आया तो बॉस ने कई नसीहतें दी बजाए इसके कि वह मुझे शाबासी देते। मैंने दूसरी नौकरी तलाशनी शुरू कर दी और दस दिन में मुझे दूसरे अखबार में नौकरी मिल गई। मुझे वह सेक्स रैकेट और दो दिन का फोर्स लीव ताउम्र याद रहेेगा।
एस. मंडोला,( देहरादून से प्रकाशित एक दैनिक में पेजीनेटर

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