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http://www.sakshatkar.com/2017/11/nandita-mahtani-hosts-birthday-party.html

मीडिया के दांत दिखाने के कुछ, खाने के कुछ

उदय केसरी---
मीडिया में हर दिन नए परिवर्तन आ रहे हैं। कभी आजादी की जंग में एक अलग किरदार निभाने वाली पत्रकारिता अब अपने सिद्धांतों से दूर भाग रही है। जो दिखता है, वही बिकता है, पर अमल करने वाले मीडिया संस्थान अब किस दिशा में जा रहे हैं, इस बिगड़ती और बदलती परिस्थितियों के लिए कौन जिम्मेदार होगा? मीडिया के दो चेहरे हैं, जो दिखता है उसकी सच्चाई कुछ और ही होती है। मीडिया के सिद्धांतों की सच्चाई बंया करता पत्रकार उदय केसरी का यह लेख...
परिवर्तन संसार का नियम है। सत्य वचन है, पर कैसा परिवर्तन? अच्छा या बुरा? हममें से ज्यादातर लोगों में परिवर्तन को लेकर सैद्धांतिक सोच प्राय: एक जैसी होती है। यानी अच्छे परिवर्तन की। लेकिन क्या हममें से सभी व्यवहारिक सोच भी ऐसी ही होती है? नहीं न। यही तो दुनिया है और व्यवहारिक सोच की विविधता या कहें जटिलता, जो इस दुनिया के कमोबेश सभी क्षेत्रों में पाई जाती है। एक पुरानी कहावत है- हाथी के दांत दिखाने के कुछ, खाने के कुछ। दुनिया में परिवर्तन का मतलब भी कुछ ऐसा ही है। दिखाने के दांत सिद्धांत हैं तो खाने के दांत व्यवहारिकता है। दुनिया के लगभग तमाम क्षेत्रों में ऐसे परिवर्तन को सैद्धांतिक रूप में विकास कहा जाता है, भले ही वह व्यवहारिक रूप में विनाश के बराबर हो, मगर इसे कहा नहीं जाता।...तो फिर इतना बड़ा मीडिया का क्षेत्र इस परिवर्तन से कैसे अछूता रह सकता है। बावजूद इसके कि यही मीडिया क्षेत्र दुनिया के अन्य सभी क्षेत्रों को सिद्धांतों के पाठ पढ़ाने का कारोबार करता है।
ध्यान रहे, यहां हम जिस मीडिया क्षेत्र की बात कर रहे हैं, उसमें दूर-संचार और मनोरंजन मीडिया को परे रखा गया है और इसमें केवल समाचार व विचार मीडिया में परिवर्तन की बातें शामिल हैं। ...तो सवाल है कि इस मीडिया क्षेत्र में हो रहे नित-नए परिवर्तन कैसे हैं- अच्छे या बुरे? सैद्धांतिक रूप में आप और हम कह सकते हैं कि आजादी के बाद से लगातार मीडिया काफी सशक्त हो रहा है- धन के मामले में और संसाधन के मामले में भी। सबकुछ सुपरफास्ट हो चुका है। बासी तो जैसे कुछ रहा ही नहीं है। और अब तो न्यूज चैनल ही नहीं, अखबार भी ‘लाइव’ खबर देने लगे हैं। लेकिन हम किस सिद्धांत के आधार पर इस परिवर्तन को अच्छा बता रहे हैं? मीडिया ज्ञान देने वाली किताबों में तो किसी सिद्धांत को सर्वमान्यता हासिल ही नहीं है। किताबों में समाचार संकलन, लेखन, संपादन और प्रकाशन के सिद्धांत कमोबेश नए-नए रास्ते ही दिखाते हैं।...तो फिर सैद्धांतिक रूप में जिस परिवतर्न को ऊपर हम रेखांकित कर रहे हैं, वह क्या है? सच कहें तो यह हाथी के दिखाने के दांत हैं।
तो क्या इस परिवर्तन के पीछे की व्यवहारिकता या सच कुछ और है? जाहिर है, जब मीडिया किसी एक सर्वमान्य सिद्धांत पर चलता ही नहीं है, तो इस क्षेत्र के तमाम महारथियों के सिद्धांत और व्यवहारिकता भी अलग-अलग होंगे। और यह भी जरूरी नहीं कि उनके सिद्धांतों और व्यवहारिकता में समनानता हो। मसलन, इंडिया टीवी जैसे न्यूज चैनल के प्रमुख रजत शर्मा का एक टॉक-शो का नाम है ‘आप की अदालत’। सैद्धांतिक रूप में इस शो का पूरा स्वरूप अदालत जैसा है। इसमें कटघरा, मुजरिम, वकील, जज व तथाकथित जनता सब होते हैं और सवालों की फेहरिस्त के साथ स्वयं रजत शर्मा भी वकील के रूप में होते हैं। लेकिन इस दिखावटी अदालत की कार्यवाही या कहें व्यवहारिकता वास्तविक अदालत की कार्यवाही से पूर्णत: अलग होती है। यह तो फिल्मी अदालती कार्यवाही से भी मेल नहीं खाती। यहां मुजरिम की पैरवी करने वाला कोई वकील नहीं होता, तब भी सारे मुजरिम बाइज्जत बरी हो जाते हैं, क्योंकि इस अदालत में आने वाले सभी मुजरिम पैसे देकर बुलाए गए सेलिब्रिटी होते हैं।...इंडिया टीवी के सिद्धांत और व्यवहारिकता के बारे में यह तो सबसे सभ्य उदाहरण था। बाकी आप खुद ही देख सकते हैं। इसके बावजूद टीआरपी के मामले में यह अन्य अग्रणी चैनलों के कम नहीं है। अब इसका मतलब यह नहीं कि अन्य न्यूज चैनलों के सिद्धांत और व्यवहारिकता में अंतर नहीं है। आजकल तो अन्य अग्रणी न्यूज चैनलों पर भी दुनिया के महाविनाश की घड़ी बड़ी तेजी से घुमाई जा रही है। बिना यह सोचे कि भारत की आधी से अधिक अनपढ़ जनता पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा।
सिद्धांत और व्यवहारिकता में फर्क रखने वाले मीडिया हाउसों में राष्ट्रीय व क्षेत्रीय न्यूज चैनल ही नहीं, अखबार भी शामिल हैं। मध्यप्रदेश की करीब पांच साल पुरानी एक घटना यहां उल्लेखनीय है- 2005 के अक्टूबर माह की 20 तारीख को टीआरपी बढ़ाने के चक्कर में देशभर के टीवी चैनलों ने अपने सारे कार्यक्रमों को दरकिनार कर चौसर के पासे फेंक कर लोगों का भविष्य बताने वाले मध्य प्रदेश के एक गांव सेहरा के 85 वर्षीय निवासी कुंजीलाल की आने वाली मौत का पलक-पांवड़े बिछाकर 24 घंटे लाइव टेलीकास्ट किया। यही नहीं एक दो दिन पहले से अखबारों ने भी मौत का काउंटडाउन छापना शुरू कर दिया था। लेकिन उसकी मौत नहीं हुई। वह कुंजीलाल अपनी ही मौत के लाइव टेलीकास्ट की घटना से आज भी इतना दुखी है कि मीडिया वालों से बात तक करना पसंद नहीं करता। इस घटना का उल्लेख यहां बहुचर्चित फिल्म ‘पीपली लाइव’ के कारण भी किया गया, ताकि आपको फिल्म की कहानी की सच्चाई का भी पता चले, अन्यथा इसकी जगह हाल की एक घटना- ‘राहुल ने डिंपी को मारा’ का पूरे दिन टेलीकास्ट किया जाना भी मीडिया के दो तरह के दांतों को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। दरअसल, मीडिया क्षेत्र में परिवर्तन के बारे में हमारी और आपकी सोच की गलती है। हम अब भी मीडिया को आजादी और भारत में वैश्विक उदारवाद की नीति लागू होने के पहले वाली सोच और सिद्धांत के आधार पर देखते हैं, जब पत्रकार की छवि ईमानदार और समाज के पहरेदार की थी और उसकी भेष-भूसा बढ़ी दाड़ी, खद्दर का कुर्ता और झोले वाली होती थी। अब तो यह इतिहास हो चुका है और अतीत के गर्त में दफन हो चुकी है वह पत्रकारिता, जिसकी आग माखनलाल चतुर्वेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, धर्मवीर भारती जैसों के दिलों में जला करती थी। अब तो परिवर्तन का मतलब महज कारोबारी फायदा है। जैसे पत्रकारिता शब्द का स्थान अब एक छोटे शब्द मीडिया ने ले लिया है, वैसे ही मीडिया के रूप में पत्रकारिता का ईमान भी छोटा हो गया है। इस मीडिया क्षेत्र में ‘सच’ के नाम पर अधूरे सच या कहें मतलबी सच का कारोबार होता है। ‘इम्पैक्ट’ के नाम पर अपना कारोबारी प्रभाव दिखाया जाता है। इससे समाज पर पडऩे वाले इम्पैक्ट का ज्यादा ख्याल नहीं रखा जाता। आज के मीडिया हाउस तो अपने यहां काम करने वाले मीडियाकर्मियों और कर्मचारियों का तो ख्याल ही नहीं रख पाते तो वे क्या समाज और देश का ख्याल करेंगे। यह बताने की जरूरत नहीं की जितनी जातपात, भेदभाव, बटरबाजी, जैकवाद, शोषण अन्य क्षेत्रों में होता है, उसमें भी मीडिया क्षेत्र पीछे नहीं है।
अब ऐसे हालात में परिवर्तन के सिद्धांत और व्यवहारिकता का अंतर कब खत्म होगा...यह तो ईश्वर ही बता सकते हैं।
(यह लेख पत्रकार उदय केसरी के ब्लॉग ‘सीधी बात’ से लिया गया है )

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